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एक जल्वे की हवस वो दम-ए-रेहलत भी नहीं | शाही शायरी
ek jalwe ki hawas wo dam-e-rehlat bhi nahin

ग़ज़ल

एक जल्वे की हवस वो दम-ए-रेहलत भी नहीं

आसी ग़ाज़ीपुरी

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एक जल्वे की हवस वो दम-ए-रेहलत भी नहीं
कुछ मोहब्बत नहीं ज़ालिम तो मुरव्वत भी नहीं

उस के कूचे में कहाँ कश्मकश बीम-ओ-रजा
ख़ौफ़-ए-दोज़ख़ भी नहीं ख़्वाहिश-ए-जन्नत भी नहीं

ज़ौक़-ए-मस्ती की मज़म्मत न कर इतनी ऐ शैख़
क्या तुझे नश्शा-ए-ज़ौक़-ए-मय-ए-उल्फ़त भी नहीं

बे-नियाज़ी भी उठा लूँ मैं तिरे नाज़ की तरह
क्या वो ताक़त न रही मुझ में तो हिम्मत भी नहीं

किस तरह कहिए कि दीदार दिखाया उस ने
बाग़-ए-जन्नत भी नहीं रोज़-ए-क़यामत भी नहीं

ज़ोहद-ओ-तक़्वा ओ इस्लाह-ए-दर-हुस्न-ए-अमल
कुछ नहीं मुझ में मगर क्या तिरी रहमत भी नहीं

जज़्ब-ए-कामिल से उसे खींच लो ऐ हज़रत-ए-दिल
कैसे दरवेश हो कुछ तुम में करामत भी नहीं

कभी 'आसी' से हम-आग़ोश न देखा तुझ को
असर-ए-जज़्बा-ए-दिल अहल-ए-मोहब्बत भी नहीं