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एक जैसे नीम-जाँ माहौल-ओ-मंज़र दूर तक | शाही शायरी
ek jaise nim-jaan mahaul-o-manzar dur tak

ग़ज़ल

एक जैसे नीम-जाँ माहौल-ओ-मंज़र दूर तक

मंज़र सलीम

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एक जैसे नीम-जाँ माहौल-ओ-मंज़र दूर तक
बे-नवा बे-नाम लोगों के समुंदर दूर तक

बस वही लफ़्ज़ों की बारिश एक सी हर अब्र से
एक से प्यासी ज़मीनों के मुक़द्दर दूर तक

ख़ाक होते आतिश-ए-एहसास-ए-महरूमी से दिल
बर्फ़-ए-मायूसी में जकड़े ज़ेहन अक्सर दूर तक

ज़िंदगी को नागिनों की तरह डसती गोलियाँ
ज़हर बढ़ता फैलता अंदर ही अंदर दूर तक

दूर तक काले धुएँ में ख़ून की बू तैरती
तैरती और मरसिए लिखती हवा पर दूर तक