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एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब | शाही शायरी
ek ek qatre ka mujhe dena paDa hisab

ग़ज़ल

एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब

मिर्ज़ा ग़ालिब

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एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़्गान-ए-यार था

अब मैं हूँ और मातम-ए-यक-शहर-आरज़ू
तोड़ा जो तू ने आइना तिमसाल-दार था

गलियों में मेरी नाश को खींचे फिरो कि मैं
जाँ-दादा-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था

मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल
हर ज़र्रा मिस्ल-ए-जौहर-ए-तेग़ आब-दार था

कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब
देखा तो कम हुए प ग़म-ए-रोज़गार था

किस का जुनून-ए-दीद तमन्ना-शिकार था
आईना-ख़ाना वादी-ए-जौहर-ग़ुबार था

किस का ख़याल आइना-ए-इन्तिज़ार था
हर बर्ग-ए-गुल के पर्दे में दिल बे-क़रार था

जूँ ग़ुंचा-ओ-गुल आफ़त-ए-फ़ाल-ए-नज़र न पूछ
पैकाँ से तेरे जल्वा-ए-ज़ख़्म आश्कार था

देखी वफ़ा-ए-फ़ुर्सत-ए-रंज-ओ-नशात-ए-दहर
ख़म्याज़ा यक-दराज़ी-ए-उम्र-ए-ख़ुमार था

सुब्ह-ए-क़यामत एक दुम-ए-गुर्ग थी 'असद'
जिस दश्त में वो शोख़-ए-दो-आलम शिकार था