एक दिन ज़ेहन में आसेब फिरेगा ऐसा
ये समन-ज़ार नज़र आएगा सहरा ऐसा
मैं ने क्या रंज दिए अश्क न लौटाए मुझे
ऐ मिरे दिल कोई बे-फ़ैज़ न देखा ऐसा
एक मुद्दत से कोई लहर न उट्ठी मुझ में
मेरी आँखों से छुपा चाँद का चेहरा ऐसा
रात कहती है मुलाक़ात न होगी अपनी
तू कोई ख़्वाब न मैं नींद का माता ऐसा
जिस्म की सतह पे काग़ज़ की तरह ज़िंदा हैं
तू समुंदर है न मैं डूबने वाला ऐसा
तेरे चेहरे पे उजाले की सख़ावत ऐसी
और मिरी रूह में नादार अंधेरा ऐसा
हर नए दर्द की पोशाक पहन ली मैं ने
जाँ मोहज़्ज़ब न हुई मैं था बरहना ऐसा
ग़ज़ल
एक दिन ज़ेहन में आसेब फिरेगा ऐसा
साक़ी फ़ारुक़ी