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एक दिन ज़ेहन में आसेब फिरेगा ऐसा | शाही शायरी
ek din zehn mein aaseb phirega aisa

ग़ज़ल

एक दिन ज़ेहन में आसेब फिरेगा ऐसा

साक़ी फ़ारुक़ी

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एक दिन ज़ेहन में आसेब फिरेगा ऐसा
ये समन-ज़ार नज़र आएगा सहरा ऐसा

मैं ने क्या रंज दिए अश्क न लौटाए मुझे
ऐ मिरे दिल कोई बे-फ़ैज़ न देखा ऐसा

एक मुद्दत से कोई लहर न उट्ठी मुझ में
मेरी आँखों से छुपा चाँद का चेहरा ऐसा

रात कहती है मुलाक़ात न होगी अपनी
तू कोई ख़्वाब न मैं नींद का माता ऐसा

जिस्म की सतह पे काग़ज़ की तरह ज़िंदा हैं
तू समुंदर है न मैं डूबने वाला ऐसा

तेरे चेहरे पे उजाले की सख़ावत ऐसी
और मिरी रूह में नादार अंधेरा ऐसा

हर नए दर्द की पोशाक पहन ली मैं ने
जाँ मोहज़्ज़ब न हुई मैं था बरहना ऐसा