एक दिन रात की सोहबत में नहीं होते शरीक
हम को क्या फ़ाएदा गर आप बहुत हैं नज़दीक
अब तो टुक हो के खड़े बात हमारी सुन लो
रात है कूचा-ओ-बाज़ार पड़े हैं तारीक
पान जो हाथ से कल ग़ैर के तू ने खाया
पी के लोहू को ग़रज़ घूँट रहे हम जूँ पीक
दूर हो वादी-ए-मजनूँ से निकल ऐ वहशत
किस वसीले से मिली तुझ को जहाँ की तमलीक
वादी-ए-इश्क़ में 'इंशा' तू सँभल कर जाता
हाँ ख़बर-दार कि ये राह बहुत है तारीक
ग़ज़ल
एक दिन रात की सोहबत में नहीं होते शरीक
इंशा अल्लाह ख़ान