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एक-दम ख़ुश्क मिरा दीदा-ए-तर है कि नहीं | शाही शायरी
ek-dam KHushk mera dida-e-tar hai ki nahin

ग़ज़ल

एक-दम ख़ुश्क मिरा दीदा-ए-तर है कि नहीं

हसरत अज़ीमाबादी

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एक-दम ख़ुश्क मिरा दीदा-ए-तर है कि नहीं
माजरे से मिरे तुझ को भी ख़बर है कि नहीं

यूँ तो उठते है मिरे दिल से हज़ारों नाले
लेकिन इन ख़ाना-ख़राबों में असर है कि नहीं

हाल मेरा तुझे बे-दर्द नहीं गर बावर
देख ले आ के कि अब नौ-ए-दिगर है कि नहीं

मेरे घर क्यूँकि तू आवे कि गली-कूचों में
तेरे मुश्ताक़ कहाँ और किधर है कि नहीं

तुझ में बू पाई न मुतलक़ कहीं जिंसिय्यत की
नस्ल-ए-आदम से तू ऐ शोख़ पिसर है कि नहीं

बुल-हवस दिल को कर अपने ज़रा बस में 'हसरत'
मर्द-ए-बे-सब्र तुझे कुछ भी जिगर है कि नहीं