एक-दम ख़ुश्क मिरा दीदा-ए-तर है कि नहीं
माजरे से मिरे तुझ को भी ख़बर है कि नहीं
यूँ तो उठते है मिरे दिल से हज़ारों नाले
लेकिन इन ख़ाना-ख़राबों में असर है कि नहीं
हाल मेरा तुझे बे-दर्द नहीं गर बावर
देख ले आ के कि अब नौ-ए-दिगर है कि नहीं
मेरे घर क्यूँकि तू आवे कि गली-कूचों में
तेरे मुश्ताक़ कहाँ और किधर है कि नहीं
तुझ में बू पाई न मुतलक़ कहीं जिंसिय्यत की
नस्ल-ए-आदम से तू ऐ शोख़ पिसर है कि नहीं
बुल-हवस दिल को कर अपने ज़रा बस में 'हसरत'
मर्द-ए-बे-सब्र तुझे कुछ भी जिगर है कि नहीं
ग़ज़ल
एक-दम ख़ुश्क मिरा दीदा-ए-तर है कि नहीं
हसरत अज़ीमाबादी