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एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को | शाही शायरी
ek aazar hui jati hai shohrat hum ko

ग़ज़ल

एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को

अमजद इस्लाम अमजद

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एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को
ख़ुद से मिलने की भी मिलती नहीं फ़ुर्सत हम को

रौशनी का ये मुसाफ़िर है रह-ए-जाँ का नहीं
अपने साए से भी होने लगी वहशत हम को

आँख अब किस से तहय्युर का तमाशा माँगे
अपने होने पे भी होती नहीं हैरत हम को

अब के उम्मीद के शोले से भी आँखें न जलीं
जाने किस मोड़ पे ले आई मोहब्बत हम को

कौन सी रुत है ज़माने में हमें क्या मालूम
अपने दामन में लिए फिरती है हसरत हम को

ज़ख़्म ये वस्ल के मरहम से भी शायद न भरे
हिज्र में ऐसी मिली अब के मसाफ़त हम को

दाग़-ए-इस्याँ तो किसी तौर न छुपते 'अमजद'
ढाँप लेती न अगर चादर-ए-रहमत हम को