एहसास में फूल खिल रहे हैं
पतझड़ के अजीब सिलसिले हैं
कुछ इतनी शदीद तीरगी है
आँखों में सितारे तैरते हैं
देखें तो हवा जमी हुई है
सोचें तो दरख़्त झूमते हैं
सुक़रात ने ज़हर पी लिया था
हम ने जीने के दुख सहे हैं
हम तुझ से बिगड़ के जब भी उठे
फिर तेरे हुज़ूर आ गए हैं
हम अक्स हैं एक दूसरे का
चेहरे ये नहीं हैं आइने हैं
लम्हों का ग़ुबार छा रहा है
यादों के चराग़ जल रहे हैं
सूरज ने घने सनोबरों में
जाले से शुआ'ओं के बुने हैं
यकसाँ हैं फ़िराक़-ओ-वस्ल दोनों
ये मरहले एक से कड़े हैं
पा कर भी तो नींद उड़ गई थी
खो कर भी तो रत-जगे मिले हैं
जो दिन तिरी याद में कटे थे
माज़ी के खंडर बने खड़े हैं
जब तेरा जमाल ढूँडते थे
अब तेरा ख़याल ढूँडते हैं
हम दिल के गुदाज़ से हैं मजबूर
जब ख़ुश भी हुए तो रोए हैं
हम ज़िंदा हैं ऐ फ़िराक़ की रात
प्यारी तिरे बाल क्यूँ खुले हैं
ग़ज़ल
एहसास में फूल खिल रहे हैं
अहमद नदीम क़ासमी