एहसास-ए-ज़ियाँ हम में से अक्सर में नहीं था
इस दुख का मुदावा किसी पत्थर में नहीं था
वो शख़्स तो शब-ख़ून में मारा गया वर्ना
उस जैसा बहादुर कोई लश्कर में नहीं था
अब ख़ाक हुआ हूँ तो ये अहवाल खुला है
शोले के सिवा कुछ मिरे पैकर में नहीं था
ये वाक़िआ मेरा था कि था सानेहा मेरा
मैं अपने ही घर में था मगर घर में नहीं था
हर इश्क़ के मंज़र में था इक हिज्र का मंज़र
इक वस्ल का मंज़र किसी मंज़र में नहीं था
ग़ज़ल
एहसास-ए-ज़ियाँ हम में से अक्सर में नहीं था
अक़ील अब्बास जाफ़री