दूसरों की आँख ले कर भी पशेमानी हुई
अब भी ये दुनिया हमें लगती है पहचानी हुई
अश्क की बे-रंग खेती मुद्दतों में लहलहाई
पहले कितना क़हत था अब कुछ फ़रावानी हुई
ख़ुद को हम पहचान पाए ये बहुत अच्छा हुआ
जिस्म के हैजान में रूहों की उर्यानी हुई
मैं तो इक ख़ुशबू का झोंका तेरे दामन का ही था
बू-ए-गुल से आ मिला क्यूँ तुझ को हैरानी हुई
उस का बाज़ार-ए-हवस में क़दर-दाँ ही कौन था
जिंस-ए-दिल की फिर यहाँ क्यूँ इतनी अर्ज़ानी हुई
ग़ज़ल
दूसरों की आँख ले कर भी पशेमानी हुई
एजाज़ उबैद