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दूरियाँ सारी सिमट कर रह गईं ऐसा लगा | शाही शायरी
duriyan sari simaT kar rah gain aisa laga

ग़ज़ल

दूरियाँ सारी सिमट कर रह गईं ऐसा लगा

क़मर इक़बाल

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दूरियाँ सारी सिमट कर रह गईं ऐसा लगा
मूँद ली जब आँख तो सीने से कोई आ लगा

किस क़दर अपनाइयत उस अजनबी बस्ती में थी
गो कि हर चेहरा था बेगाना मगर अपना लगा

पास से हो कर जो वो जाता तो ख़ुश होते मगर
उस का कतरा कर गुज़रना भी हमें अच्छा लगा

उस घड़ी क्या कैफ़ियत दिल की थी कुछ हम भी सुनें
तू ने पहली बार जब देखा हमें कैसा लगा

जिस क़दर गुंजान आबादी थी उस के शहर की
जाने क्यूँ हर शख़्स हम को इस क़दर तन्हा लगा

जिस्म का आतिश-कदा ले कर तो पहुँचे थे वहाँ
हाथ जब उस का छुआ तो बर्फ़ से ठंडा लगा

जब किसी शीरीं-दहन से गुफ़्तुगू की ऐ 'क़मर'
अपना लहजा भी हमें उस की तरह मीठा लगा