दूर से शहर-ए-फ़िक्र सुहाना लगता है
दाख़िल होते ही हर्जाना लगता है
साँस की हर आमद लौटानी पड़ती है
जीना भी महसूल चुकाना लगता है
रोज़ पलट आता है लहू में डूबा तीर
रोज़ फ़लक पर एक निशाना लगता है
बीच नगर दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है
शाम तलक हर-सू वीराना लगता है
उम्र ज़माना शहर समुंदर घर आकाश
ज़ेहन को एक झटका रोज़ाना लगता है
बे-हासिल चलते रहना भी सहल नहीं
क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है
क्या उस्लूब चुनें किस ढब इज़हार करें
टीस नई है दर्द पुराना लगता है
होंट के ख़म से दिल के पेच मिलाना 'साज़'
कहते कहते बात ज़माना लगता है
ग़ज़ल
दूर से शहर-ए-फ़िक्र सुहाना लगता है
अब्दुल अहद साज़