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दूर रह कर वतन की फ़ज़ा से जब भी अहबाब की याद आई | शाही शायरी
dur rah kar watan ki faza se jab bhi ahbab ki yaad aai

ग़ज़ल

दूर रह कर वतन की फ़ज़ा से जब भी अहबाब की याद आई

मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी

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दूर रह कर वतन की फ़ज़ा से जब भी अहबाब की याद आई
हिज्र में रह गया दिल तड़प कर आँख फ़र्त-ए-अलम से भर आई

गुलशन-ए-हसरत-ओ-आरज़ू की जब कली कोई खुलने पे आई
बाद-ए-सरसर ने मारे तमांचे इस ख़ता पर कि क्यूँ मुस्कुराई

अहल-ए-ज़र से ये उन्स-ओ-मोहब्बत बे-ज़रों से ये अंदाज़-ए-नफ़रत
खुल गया आप का ज़ोहद-ओ-तक़्वा देख ली आप की पारसाई

वो तसन्नो' है अख़्लाक़ क्या है वो नुमाइश है इख़्लास कब है
वो मोहब्बत नहीं है रिया है हो न जब तक दिलों में सफ़ाई

उन का अंजाम है सर-बुलंदी जिन के दिल में नहीं ख़ुद-पसंदी
जिन को महबूब है ख़ाकसारी उन को आती नहीं ख़ुद-सताई

दिल है इंसान का आबगीना इस के जल्वों का है ये ख़ज़ीना
बैठने दें न गर्द-ए-कुदूरत आबगीने की रक्खे सफ़ाई

रोज़-ए-महशर की वो जाँ-गुदाज़ी हद न होगी सरासीमगी की
काम आएगी उस दिन यक़ीनन आसियों के लिए मुस्तफ़ाई

तेरी रहमत का दिल को यक़ीं है इस में मुझ को कोई शक नहीं है
होगी मक़्बूल इक रोज़ यारब तेरे दर की मिरी जुब्बा-साई

दौर-दौरा है किज़्ब-ओ-रिया का है दिलों से ख़ुलूस आज अन्क़ा
देखिए अब कहाँ जा रही है अपने मरकज़ से हट कर ख़ुदाई

क्या अब इंसानियत मर चुकी है बद-ज़नी दिल में घर कर चुकी है
कुछ समझ में नहीं आ रहा है क्यूँ है बद-ख़्वाह भाई का भाई

आदमी की ये कैसी रविश है दिल में इस के ये कैसी ख़लिश है
ग़ैर से क़ुर्बत-ए-दोस्ताना और अपनों से बे-ए'तिनाई

ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ में दिन गुज़ारें ज़िंदगी इस तरह से सँवारें
आक़िबत में मिले सुर्ख़-रूई और यहाँ भी न हो जग-हँसाई

सब से बेहतर है सब्र-ओ-क़नाअत रूह को इस से मिलती है राहत
ला न हर्फ़-ए-शिकायत ज़बाँ पर सुन न 'ज़ौक़ी' किसी की बुराई