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दूद-ए-आतिश की तरह याँ से न टल जाऊँगा | शाही शायरी
dud-e-atish ki tarah yan se na Tal jaunga

ग़ज़ल

दूद-ए-आतिश की तरह याँ से न टल जाऊँगा

जुरअत क़लंदर बख़्श

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दूद-ए-आतिश की तरह याँ से न टल जाऊँगा
शम्अ-साँ महफ़िल-ए-जानाँ ही में जल जाऊँगा

दूर से भी उसे देखूँ तो ये चितवन में कहे
आ के दीदे अभी तलवों तले मल जाऊँगा

दिल-ए-मुज़्तर ये कहे है वहीं ले चल वर्ना
तोड़ छाती के किवाड़ों को निकल जाऊँगा

मैं हूँ ख़ुर्शीद-ए-सर-ए-कोह यक़ीं है कि वो माह
आएगा बाम पे तब जब कि मैं ढल जाऊँगा

आज भी कोई न ले जाएगा वाँ मुझ को तो बस
कल नहीं है मुझे मैं जी ही से कल जाऊँगा

वाँ से उठता हूँ तो कहता है ये पा-ए-रफ़्तार
जब ज़मीं पर तू रखेगा मैं फिसल जाऊँगा

ब-ख़ुदा हुस्न-ए-बुताँ का यही सब से है कलाम
वो छलावा हूँ कि तुम सब को मैं छल जाऊँगा

आ के बरसों में वो मुझ पास ये शब कहने लगे
याँ ठहरने में बहुत से हैं ख़लल जाऊँगा

तेग़ा क़ातिल का कहे है कि दुवाली बंदू
मूठ की तरह से तुम सब पे मैं चल जाऊँगा

गो मिज़ाज इस का ये बदला कि कहे है मुझे यूँ
देखो तुम आए तो मैं घर से निकल जाऊँगा

पर रहा जाएगा कब है मिरी हालत तग़ईर
यूँ न जाऊँगा तो मैं भेस बदल जाऊँगा

'जुरअत' अशआर-ए-जुनूँ-ख़ेज़ कह अब और कि मैं
ले के ये तुर्बत-ए-सौदा पे ग़ज़ल जाऊँगा