दुश्वार है इस अंजुमन-आरा को समझना
तन्हा न कभी तुम दिल-ए-तन्हा को समझना
हो जाए तो हो जाए इज़ाफ़ा ग़म-ए-दिल में
क्या अक़्ल से सौदा-ए-तमन्ना को समझना
इक लम्हा-ए-हैरत के सिवा कुछ भी नहीं है
कुछ और न इस तुंदी-ए-दरिया को समझना
कुछ तेज़ हवाओं ने भी दुश्वार किया है
क़दमों के निशानात से सहरा को समझना
ग़ज़ल
दुश्वार है इस अंजुमन-आरा को समझना
अजमल सिराज