दुपट्टा वो गुलनार दिखला गए
नए सुर से फिर आग भड़का गए
तुम्हारी ज़िदों से हम उकता गए
किसी रोज़ सुन लेना कुछ खा गए
हमारी फ़ुग़ाँ से न मानो बुरा
कहाँ तक करें ज़ब्त घबरा गए
क़फ़स से छुटे किन दिनों या-नसीब
कि पत्ते भी फूलों के मुरझा गए
गए मेरे दुश्मन के फूलों में वो
मुझे ग़म के काँटों में उलझा गए
हमारे गुल-अंदाम का है ये रंग
ज़रा धूप में निकले सँवला गए
ये सर चोट फ़ुर्क़त के सदमे रही
बहुत कासा-ए-सर में बाल आ गए
लहद में गिरे जब हुआ सर सफ़ेद
पड़ी धूप ऐसी कि त्योरा गए
न पहुँची चमन तक ख़िज़ाँ आ गई
दिलों के कँवल खिल के कुम्हला गए
किसी की वो ज़ुल्फ़ें जो याद आ गईं
मिरे सीने पर साँप लहरा गए
फ़लक अब्र की तरह फट जाएगा
मिरे नाले जिस रोज़ टकरा गए
हर इक बात की तह समझने लगे
बहुत दूर हो हम तुम्हें पा गए
हुआ धूप में भी न कम हुस्न-ए-यार
कनहय्या बने वो जो सँवला गए
न जोबन उभरने दिया नाज़ ने
दुपट्टा जो सरका तो शर्मा गए
मियाँ-'बहर' क्यूँ चुपके चुपके हो आज
जो मेहमान आए थे वो क्या गए
ग़ज़ल
दुपट्टा वो गुलनार दिखला गए
इमदाद अली बहर