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दुनिया में यही चोर बनाता है असस को | शाही शायरी
duniya mein yahi chor banata hai asas ko

ग़ज़ल

दुनिया में यही चोर बनाता है असस को

मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही

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दुनिया में यही चोर बनाता है असस को
अल्लाह करे क़त्अ कहीं दस्त-ए-हवस को

दिल देता हूँ मैं क़ामत-ए-दिल-दार को अपना
लटकाता हूँ मैं नख़्ल-ए-मोहब्बत में क़फ़स को

जैसा कि ये दिल दाम-ए-मोहब्बत में फँसा है
कम देखता हूँ मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार-ए-क़फ़स को

निकले हैं ख़त-ओ-ख़ाल लब-ए-यार के नज़दीक
अल्लाह ने दिया शहद-ओ-शकर मोर-ओ-मगस को

दौड़ाती है ये रूह मिरी जिस्म को हर-सू
असवार उड़ाता है ज़माने में फ़रस को

ज़ख़्म-ए-दिल-ए-शैदा हुआ अच्छा न मसीहा
ख़य्यात-ए-अज़ल सिल न सका चाक-ए-क़फ़स को

रहते थे हम-आग़ोश जवानी में बुतों से
इस पीरी के आते ही तरसने लगे मस को

कब पेच से इस रिश्ता-ए-उलफ़त के छुटूँगा
तोडूँगा न जब तक कि मैं इस तार-ए-नफ़स को

बीमारी-ए-उल्फ़त से जो मैं बच गया नासेह
टल जाऊँगा अब की कहीं दो-चार बरस को

दामन का निशाँ है न गरेबाँ का पता है
ऐ दस्त-ए-जुनूँ मानता हूँ मैं तिरे बस को

सय्याद जो देखे मुझे उल्फ़त की नज़र से
गुलज़ार से बेहतर कहीं समझूँ मैं क़फ़स को

ऐ दिल कभी कहने का नहीं राज़-ए-मोहब्बत
इस दश्त में दौड़ा न तबीअ'त के फ़रस को

दिल देता है उस तिफ़्ल-ए-परी-ज़ाद को नादाँ
क्यूँ 'मुंतही' शोले से भिड़ाता है तू ख़स को