दुनिया में यही चोर बनाता है असस को
अल्लाह करे क़त्अ कहीं दस्त-ए-हवस को
दिल देता हूँ मैं क़ामत-ए-दिल-दार को अपना
लटकाता हूँ मैं नख़्ल-ए-मोहब्बत में क़फ़स को
जैसा कि ये दिल दाम-ए-मोहब्बत में फँसा है
कम देखता हूँ मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार-ए-क़फ़स को
निकले हैं ख़त-ओ-ख़ाल लब-ए-यार के नज़दीक
अल्लाह ने दिया शहद-ओ-शकर मोर-ओ-मगस को
दौड़ाती है ये रूह मिरी जिस्म को हर-सू
असवार उड़ाता है ज़माने में फ़रस को
ज़ख़्म-ए-दिल-ए-शैदा हुआ अच्छा न मसीहा
ख़य्यात-ए-अज़ल सिल न सका चाक-ए-क़फ़स को
रहते थे हम-आग़ोश जवानी में बुतों से
इस पीरी के आते ही तरसने लगे मस को
कब पेच से इस रिश्ता-ए-उलफ़त के छुटूँगा
तोडूँगा न जब तक कि मैं इस तार-ए-नफ़स को
बीमारी-ए-उल्फ़त से जो मैं बच गया नासेह
टल जाऊँगा अब की कहीं दो-चार बरस को
दामन का निशाँ है न गरेबाँ का पता है
ऐ दस्त-ए-जुनूँ मानता हूँ मैं तिरे बस को
सय्याद जो देखे मुझे उल्फ़त की नज़र से
गुलज़ार से बेहतर कहीं समझूँ मैं क़फ़स को
ऐ दिल कभी कहने का नहीं राज़-ए-मोहब्बत
इस दश्त में दौड़ा न तबीअ'त के फ़रस को
दिल देता है उस तिफ़्ल-ए-परी-ज़ाद को नादाँ
क्यूँ 'मुंतही' शोले से भिड़ाता है तू ख़स को

ग़ज़ल
दुनिया में यही चोर बनाता है असस को
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही