दुख दे या रुस्वाई दे
ग़म को मिरे गहराई दे
अपने लम्स को ज़िंदा कर
हाथों को बीनाई दे
मुझ से कोई ऐसी बात
बिन बोले जो सुनाई दे
जितना आँख से कम देखूँ
उतनी दूर दिखाई दे
इस शिद्दत से ज़ाहिर हो
अँधों को भी सुझाई दे
उफ़ुक़ उफ़ुक़ घर आँगन है
आँगन पार रसाई दे

ग़ज़ल
दुख दे या रुस्वाई दे
सलीम अहमद