दोस्त कुछ और भी हैं तेरे अलावा मिरे दोस्त
कई सहरा मिरे हमदम कई दरिया मिरे दोस्त
तू भी हो मैं भी हूँ इक जगह पे और वक़्त भी हो
इतनी गुंजाइशें रखती नहीं दुनिया मिरे दोस्त!
तेरी आँखों पे मिरा ख़्वाब-ए-सफ़र ख़त्म हुआ
जैसे साहिल पे उतर जाए सफ़ीना मिरे दोस्त!
ज़ीस्त बे-मा'नी वही बे-सर-ओ-सामानी वही
फिर भी जब तक है तिरी धूप का साया मिरे दोस्त!
अब तो लगता है जुदाई का सबब कुछ भी न था
आदमी भूल भी सकता है न रस्ता मिरे दोस्त!
राह तकते हैं कहीं दूर कई सुस्त चराग़
और हवा तेज़ हुई जाती है अच्छा मिरे दोस्त!
ग़ज़ल
दोस्त कुछ और भी हैं तेरे अलावा मिरे दोस्त
इदरीस बाबर