दोनों जानिब क़ैद-शुदा इस ख़ुश-फ़हमी में रहते हैं
सरहद के उस पार परिंदे आज़ादी में रहते हैं
शाम तलक आदाब बजाते गर्दन दुखने लगती है
प्यादे हो कर शाहों वाली आबादी में रहते हैं
गर रोए तो आँखों के सब बाशिंदे बह जाएँगे
हाए शिकस्ता ख़्वाब हमारे इस बस्ती में रहते हैं
ज़ीना-दर-ज़ीना जब तेरी याद उतर कर आती है
मुँह बाए अशआर हमारे हैरानी में रहते हैं
उस की बक-बक घर से चल कर चाँद तलक हो आती हैं
और हम गुम उस के होंटों की तुरपाई में रहते हैं
चार किताबें साथ नहीं और सौ ग़ज़लें कह भी मारीं
अब के लिखने वाले जाने किस जल्दी में रहते हैं
आधी रात ग़ज़ल कहने का शौक़ किसे है 'सौरभ'-जी
बस इतनी सी बात है तब हम तन्हाई में रहते हैं

ग़ज़ल
दोनों जानिब क़ैद-शुदा इस ख़ुश-फ़हमी में रहते हैं
प्रबुद्ध सौरभ