दोनों हैं उन के हिज्र का हासिल लिए हुए
दिल को है दर्द दर्द को है दिल लिए हुए
देखा ख़ुदा पे छोड़ के कश्ती को नाख़ुदा
जैसे ख़ुद आ गया कोई साहिल लिए हुए
देखो हमारे सब्र की हिम्मत न टूट जाए
तुम रात दिन सताओ मगर दिल लिए हुए
वो शब भी याद है कि मैं पहुँचा था बज़्म में
और तुम उठे थे रौनक़-ए-महफ़िल लिए हुए
अपनी ज़रूरियात हैं अपनी ज़रूरियात
आना पड़ा तुम्हें तलब-ए-दिल लिए हुए
बैठा जो दिल तो चाँद दिखा कर कहा 'क़मर'
वो सामने चराग़ है मंज़िल लिए हुए
ग़ज़ल
दोनों हैं उन के हिज्र का हासिल लिए हुए
क़मर जलालवी