दोनों घरों का लुत्फ़ जुदागाना मिल गया
काबे से हम चले थे कि बुत-ख़ाना मिल गया
साक़ी से यूँ सुबूत-ए-करीमाना मिल गया
पैमाना मैं ने माँगा था मय-ख़ाना मिल गया
दिल क्यूँ न हम फ़रोख़्त करें इस यक़ीन पर
क़ीमत भी अब मिलेगी जो बैआ'ना मिल गया
साक़ी की चश्म-ए-मस्त इधर आज उठ गई
हम को हमारे ज़र्फ़ का पैमाना मिल गया
करनी पड़ी न और कहीं जुस्तुजू मुझे
काबे ही के हुदूद में बुत-ख़ाना मिल गया
महशर में देख कर उन्हें यूँ शाद हो गए
गोया हमें नजात का परवाना मिल गया
मिल कर भी जल गया कि बचा ये न पूछिए
इतना हुआ कि शम्अ' से परवाना मिल गया
अब दर-ब-दर की ठोकरें खाने से क्या ग़रज़
मुझ को ख़ुदा-ए-काबा-ओ-बुत-ख़ाना मिल गया
अल्लाह रे चश्म-ए-साक़ी-ए-महफ़िल का लुत्फ़-ए-ख़ास
सब यूँ ही रह गए मुझे पैमाना मिल गया
वो ख़त में लिख रहे हैं तिरी आफ़ियत नहीं
मुझ को अदम की राह का परवाना मिल गया
ऐ सालिकान-ए-जादा-ए-इरफ़ाँ बढ़े चलो
बुत-ख़ाना मिल गया तो ख़ुदा-ख़ाना मिल गया
तौक़ीर-ए-इश्क़ ख़ाक उड़ाने से बढ़ गई
ये है ग़लत कि ख़ाक में दीवाना मिल गया
पाए उरूज क्यूँ न हमारी फ़रोतनी
फूला फला वो ख़ाक में जो दाना मिल गया
जोश-ए-जुनूँ के वास्ते अब कुछ न चाहिए
वीराने की तलाश थी वीराना मिल गया
पैमाना-ओ-सुबू की ज़रूरत नहीं रही
मुझ को मिज़ाज-ए-साक़ी-ए-मय-ख़ाना मिल गया
मरक़द से कुश्तगान-ए-मोहब्बत निकल चुके
अब हश्र तक के वास्ते काशाना मिल गया
मालूम हम ने कर लिए असरार-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
तक़दीर से अगर कोई दीवाना मिल गया
रख ली ख़ुदा-ए-इश्क़ ने जोश-ए-जुनूँ की शर्म
घर से निकलते ही मुझे वीराना मिल गया
वो कह गए कि फिर कोई तूफ़ान उठाए
ऐ 'नूह' मुझ को शग़्ल-ए-क़दीमाना मिल गया
ग़ज़ल
दोनों घरों का लुत्फ़ जुदागाना मिल गया
नूह नारवी