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दो-रंगी ख़ूब नईं यक-रंग हो जा | शाही शायरी
do-rangi KHub nain yak-rang ho ja

ग़ज़ल

दो-रंगी ख़ूब नईं यक-रंग हो जा

सिराज औरंगाबादी

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दो-रंगी ख़ूब नईं यक-रंग हो जा
सरापा मोम हो या संग हो जा

तुझे ज्यूँ ग़ुंचा गर है दर्द की बू
लहू का घूँट पी दिल-तंग हो जा

कहा किस तरह दिल ने तुझ कूँ ऐ ग़म
कि दिल की आरसी पर ज़ंग हो जा

यही आहों के तारों में सदा है
कि बार-ए-ग़म सीं ख़म ज्यूँ चंग हो जा

दुआ है ऐ रह-ए-ग़म तूल-ए-उम्र का
क़दम पर है तो सौ फ़रसंग हो जा

गले में डाल रुस्वाई की अल्फी
अलिफ़ खिंच आह का बे-नंग हो जा

बिरह की आग में साबित-क़दम चल
'सिराज' अब शम्अ' का हम-रंग हो जा