दो दमों से है फ़क़त गोर-ए-ग़रीबाँ आबाद
तुम हमेशा रहो ऐ हसरत-ओ-अरमाँ आबाद
तुझ से ऐ दर्द है क़स्र-ए-दिल-ए-वीराँ आबाद
किया सर-अफ़राज़ किया ख़ाना-वीराँ आबाद
जिस जगह बैठ के रोए वो मकाँ डूब गए
शहर होने नहीं देते तिरे गिर्यां आबाद
क़ैस-ओ-फ़रहाद के दम से भी अजब रौनक़ थी
कुछ दिनों ख़ूब रहे कोह-ओ-बयाबाँ आबाद
वहशत-ए-दिल ये बढ़ी छोड़ दिए घर सब ने
तुम हुए ख़ाना-नशीं हो गईं गलियाँ आबाद
आमद-ए-क़ाफ़िला-ए-दर्द-ओ-अलम है सद-शुक्र
आज होती है सरा-ए-दिल-ए-वीराँ आबाद
मिट गए दाग़-ए-जिगर हुस्न-ए-रुख़-ए-यार गया
कल की है बात कि था क्या ये गुलिस्ताँ आबाद
तेरे दीवानों के जिस दश्त से उठ्ठे बिस्तर
वहशियों से न हुआ फिर वो बयाबाँ आबाद
सूरत-ए-शम्अ हुआ ख़ाक-ए-बदन जल जल कर
हम ने तुर्बत भी न की ऐ शब-ए-हिज्राँ आबाद
सोहबतें हो गईं बर्बाद गुल-अंदामों की
ख़ाक उड़ती है वहाँ थे जो गुलिस्ताँ आबाद
सीना ओ दिल में ख़ुशी से न जगह थी ग़म की
ऐ 'तअश्शुक़' ये मकाँ भी थे कभी हाँ आबाद
ग़ज़ल
दो दमों से है फ़क़त गोर-ए-ग़रीबाँ आबाद
तअशशुक़ लखनवी