दियत इस क़ातिल-ए-बे-रहम से क्या लीजिएगा
अपनी ही आँखों से अब ख़ून बहा लीजिएगा
फिर नहीं होने की तक़्सीर तो ऐसी हरगिज़
अब किसी तरह मेरी जान बचा लीजिएगा
इस क़दर संग-दिली तुम को नहीं है लाज़िम
किसी मज़लूम की गाहे तो दुआ लीजिएगा
लख़्त-ए-दिल ख़ाक में देता है कोई भी रहने
गिर पड़े अश्क तो आँखों से उठा लीजिएगा
फिर न पछताओ कहीं बाद मिरे जाने के
गालियाँ और हों बाक़ी तो सुना लीजिएगा
रूठ कर जाए कोई अपने से प्यारे तो वहीं
चाहिए आप गले पड़ के मना लीजिएगा
अपने मुश्ताक़ को लाज़िम है कि गाहे माहे
ग़ैर की आँख बचा घर में बुला लीजिएगा
एक मुद्दत हुई कुछ हर्फ़-ओ-हिकायत ही नहीं
जी में है आज तो बातों में लगा लीजिएगा
किसी जलसे में जो 'ईमान' कहो तो जानें
घर में यूँ बैठे हुए शेर बना लीजिएगा
ग़ज़ल
दियत इस क़ातिल-ए-बे-रहम से क्या लीजिएगा
शेर मोहम्मद ख़ाँ ईमान