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दिया जब जाम-ए-मय साक़ी ने भर के | शाही शायरी
diya jab jam-e-mai saqi ne bhar ke

ग़ज़ल

दिया जब जाम-ए-मय साक़ी ने भर के

हफ़ीज़ जौनपुरी

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दिया जब जाम-ए-मय साक़ी ने भर के
तो पछताए बहुत हम तौबा कर के

लिपट जाओ गले से वक़्त-ए-आख़िर
कि फिर जीता नहीं है कोई मर के

वहाँ से आ के उस की भी फिरी आँख
वो तेवर ही नहीं अब नामा-बर के

कोई जब पूछता है हाल दिल का
तो रो देते हैं हम इक आह भर के

गुलों के इश्क़ में दे जान बुलबुल
अरे ये हौसले एक मुश्त पर के

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे उन की ज़िद से
जो कहते हैं दिखा देते हैं कर के

रहेंगे ख़ाक में हम को मिला कर
तिरे अंदाज़ इस नीची नज़र के

दिमाग़ अपना न क्यूँ कर अर्श पर हो
ये समझो तो गदा हैं किस के दर के

हुई है क़ैद से बद-तर रिहाई
किया आज़ाद उस ने पर कतर के

उठे जाते हैं लो दुनिया से हम आज
मिटे जाते हैं झगड़े उम्र भर के

'हफ़ीज़' अब नाला ओ फ़रियाद छोड़ो
कोई दिन यूँ भी देखो सब्र कर के