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दिन को रहते झील पर दरिया किनारे रात को | शाही शायरी
din ko rahte jhil par dariya kinare raat ko

ग़ज़ल

दिन को रहते झील पर दरिया किनारे रात को

अहमद राही

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दिन को रहते झील पर दरिया किनारे रात को
याद रखना चाँद तारो इस हमारी बात को

अब कहाँ वो महफ़िलें हैं अब कहाँ वो हम-नशीं
अब कहाँ से लाएँ उन गुज़रे हुए लम्हात को

पड़ चुकी हैं उतनी गिर्हें कुछ समझ आता नहीं
कैसे सुलझाएँ भला उलझे हुए हालात को

कितनी तूफ़ानी थीं रातें जिन में दो दीवाने दिल
थपकियाँ देते रहे भड़के हुए जज़्बात को

दर्द में डूबी हुई लय बन गई है ज़िंदगी
भूल जाते काश हम उल्फ़त-भरे नग़्मात को

वो कि अपने प्यार की थी भीगी भीगी इब्तिदा
याद कर के रो दिया दिल आज उस बरसात को