दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
ख़्वाब ही ख़्वाब फ़क़त रूह की जागीर हुए
उम्र भर लिखते रहे फिर भी वरक़ सादा रहा
जाने क्या लफ़्ज़ थे जो हम से न तहरीर हुए
ये अलग दुख है कि हैं तेरे दुखों से आज़ाद
ये अलग क़ैद है हम क्यूँ नहीं ज़ंजीर हुए
दीदा ओ दिल में तिरे अक्स की तश्कील से हम
धूल से फूल हुए रंग से तस्वीर हुए
कुछ नहीं याद कि शब रक़्स की महफ़िल में 'ज़फ़र'
हम जुदा किस से हुए किस से बग़ल-गीर हुए
ग़ज़ल
दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
साबिर ज़फ़र