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दिन को बहर-ओ-बर का सीना चीर कर रख दीजिए | शाही शायरी
din ko bahr-o-bar ka sina chir kar rakh dijiye

ग़ज़ल

दिन को बहर-ओ-बर का सीना चीर कर रख दीजिए

सिराजुद्दीन ज़फ़र

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दिन को बहर-ओ-बर का सीना चीर कर रख दीजिए
रात को फिर पा-ए-गुल-रूयाँ पे सर रख दीजिए

देखिए फिर क्या दमकते हैं गुल-अंदामान-ए-शहर
इक ज़रा उन में मोहब्बत का शरर रख दीजिए

आहुवान-ए-शब गुरेज़ाँ हों तो उन की राह में
दाम-ए-दिल रख दीजिए दाम-ए-नज़र रख दीजिए

बुत-परस्ती कीजिए इस शिद्दत-ए-एहसास से
संग में भी जुज़्व-ए-एहसास-ओ-ख़बर रख दीजिए

ज़ोहद अगर जंग-आज़मा हो खींचिए शमशीर-ए-शौक़
हुस्न अगर मद्द-ए-मुक़ाबिल हो सिपर रख दीजिए

राहत-जान-ए-'ज़फ़र' हैं शाहिदान-ए-बे-हुनर
रौंदने को उन के क़दमों में हुनर रख दीजिए