दिन के सीने पे शाम का पत्थर
एक पत्थर पे दूसरा पत्थर
ये सुना था कि देवता है वो
मेरे हक़ ही में क्यूँ हुआ पथर
दाएरे बनते और मिटते थे
झील में जब कभी गिरा पत्थर
अब तो आबाद है वहाँ बस्ती
अब कहाँ तेरे नाम का पत्थर
हो गए मंज़िलों के सब राही
दे रहा है किसे सदा पत्थर
सारे तारे ज़मीं पे गिर जाते
ज़ोर से मैं जो फेंकता पत्थर
नाम ने काम कर दिखाया है
सब ने देखा है तैरता पत्थर
तू उसे क्या उठाएगा 'आदिल'
'मीर' तक से न उठ सका पत्थर
ग़ज़ल
दिन के सीने पे शाम का पत्थर
आदिल रज़ा मंसूरी