EN اردو
दिन भर ग़मों की धूप में चलना पड़ा मुझे | शाही शायरी
din bhar ghamon ki dhup mein chalna paDa mujhe

ग़ज़ल

दिन भर ग़मों की धूप में चलना पड़ा मुझे

वाली आसी

;

दिन भर ग़मों की धूप में चलना पड़ा मुझे
रातों को शम्अ बन के पिघलना पड़ा मुझे

ठहरी ही थी निगाह कि मंज़र बदल गया
रुकना पड़ा मुझे कभी चलना पड़ा मुझे

हर हर क़दम पे जानने वालों की भीड़ थी
हर हर क़दम पे भेस बदलना पड़ा मुझे

रंगों के इंतिख़ाब से उकता के एक दिन
रंगों के दाएरे से निकलना पड़ा मुझे

दुनिया की ख़्वाहिशों ने मिरी राह रोक ली
दुनिया की ख़्वाहिशों को कुचलना पड़ा मुझे

बारिश कुछ इतनी तेज़ हुई अब के तंज़ की
गिर गिर के बार-बार सँभलना पड़ा मुझे

हर आश्ना निगाह यहाँ अजनबी लगी
मजबूर हो के घर से निकलना पड़ा मुझे