दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई
कोई निगाह पस-ए-गर्द-ए-कारवाँ न गई
वो और चीज़ है होते हैं जिस से दिल शादाब
तिरी बहार से वीरानी-ए-ख़िज़ाँ न गई
निकल के ख़ुल्द से भी आदमी न पछताया
ज़मीं पे भी चमन-आराई-ए-गुमाँ न गई
बस एक कुंज-ए-क़फ़स तक न आ सकी वर्ना
सबा चली तो चमन में कहाँ कहाँ न गई
कहाँ कहाँ न हुईं सब्त हुस्न की मोहरें
कली हवा में बिखर कर भी राएगाँ न गई
मिरी दुआ की ये ग़ैरत है कितनी क़ाबिल-ए-दाद
कि लब तक आई मगर सू-ए-आसमाँ न गई
दयार-ए-इश्क़ खंडर और दश्त-ए-दिल सुनसान
मगर 'नदीम' की रंगीनी-ए-बयाँ न गई
ग़ज़ल
दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई
अहमद नदीम क़ासमी