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दिलों पे ज़ख़्म लगा के हज़ार गुज़री बहार | शाही शायरी
dilon pe zaKHm laga ke hazar guzri bahaar

ग़ज़ल

दिलों पे ज़ख़्म लगा के हज़ार गुज़री बहार

अहमद मासूम

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दिलों पे ज़ख़्म लगा के हज़ार गुज़री बहार
गई है छोड़ के इक यादगार गुज़री बहार

मिरे क़रीब जो कोई गुल-ए-बदन महका
तो आई याद कोई ख़ुश-गवार गुज़री बहार

किसी तरह मुझे पागल न कर सकी वर्ना
तिरे बग़ैर भी आई बहार गुज़री बहार

हर एक सर्व-ए-रवाँ पर गुमाँ कि जैसे वही
हो मेरा माज़ी मिरी यादगार गुज़री बहार

मिरे नसीब का नौहा ख़िज़ाँ ये अहद-ए-ख़िज़ाँ
तिरे करम का फ़साना बहार गुज़री बहार