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दिल वो काफ़िर कि सदा ऐश का सामाँ माँगे | शाही शायरी
dil wo kafir ki sada aish ka saman mange

ग़ज़ल

दिल वो काफ़िर कि सदा ऐश का सामाँ माँगे

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

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दिल वो काफ़िर कि सदा ऐश का सामाँ माँगे
ज़ख़्म पा जाए तो कम्बख़्त नमक-दाँ माँगे

लुत्फ़ आए जो कोई सोख़्ता-सामान-ए-बहार
ख़ालिक़-ए-रंग से फिर शो'ला-ए-उर्यां माँगे

हसरत-ए-दीद सर-ए-बाम तमाशा चाहे
इश्क़-ए-बेताब सर-ए-तूर चराग़ाँ माँगे

रात ज़ुल्फ़ों से करे शोख़ अँधेरों का सवाल
रौशनी लौह-ए-जबीं से मह-ए-ताबाँ माँगे

इक चराग़ और सर-ए-रह-गुज़र-ए-बाद सही
चार तिनकों के लिए कौन गुलिस्ताँ माँगे

कम-निगाही का तक़ाज़ा है कि फिर जुरअत-ए-शौक़
ख़ुद तिरी शोख़ी-ए-अंदाज़ से उनवाँ माँगे

दस्त-ए-वहशत के कोई हौसले देखे 'ताबाँ'
जब भी माँगे तो उसी शोख़ का दामाँ माँगे