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दिल उन का है कुछ और तो है उन की ज़बाँ और | शाही शायरी
dil un ka hai kuchh aur to hai unki zaban aur

ग़ज़ल

दिल उन का है कुछ और तो है उन की ज़बाँ और

अर्श मलसियानी

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दिल उन का है कुछ और तो है उन की ज़बाँ और
करता हूँ यक़ीं जितना मैं बढ़ता है गुमाँ और

मंज़िल का जुनूँ है तो हर इक गाम है मंज़िल
मिटता है निशाँ और का तो मिलता है निशाँ और

परवाने के मातम में बुझी शम्अ' ये कह कर
तेरे लिए हाज़िर है ये थोड़ा सा धुआँ और

पुर-दर्द जो दिल में उन्हें रोको न फ़ुग़ाँ से
होते हैं ये ख़ामोश तो करते हैं फ़ुग़ाँ और

यारब ये सुना है वो समझते नहीं उर्दू
दे और दिल उन को जो न दे मुझ को ज़बाँ और

होता है फ़ुज़ूँ यास में सोज़-ए-ग़म-ए-उल्फ़त
बुझता है तो होता है ये दिल शो'ला-फ़िशाँ और

अपनों ही से तुम इश्क़ में घबरा गए साहब
इस राह में हाइल हैं अभी संग-ए-गराँ और

दुनिया में तो ममनूअ' है जन्नत में है जाएज़
क्या बात है वाइ'ज़ की यहाँ और वहाँ और

होती है ज़बाँ बंद तो क्या कुछ नहीं कहती
रुकती है ये तलवार तो होती है रवाँ और

असनाम-तराशी भी बड़ी चीज़ है लेकिन
है नाज़ुकी-ए-कारगह-ए-शीशा-गराँ और

कहने को तो ऐ 'अर्श' सुख़न-संज हैं हम भी
हक़ ये है कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और