दिल तो पज़मुर्दा है दाग़-ए-गुल्सिताँ हों तो क्या
आँखें रोती हैं दहान-ए-ज़ख़्म ख़ंदाँ हों तो क्या
दाग़-ए-ग़म दिल पर उठा कर मरने वाले मर गए
बुर्ज क़ब्रों के अगर सर्व-ए-चराग़ाँ हों तो क्या
बेगमें शहज़ादियाँ फिरने लगीं ख़ाना-ख़राब
अब चुड़ैलें साहिबान-ए-क़स्र-ओ-दीवाँ हों तो क्या
फ़र्श-ए-ख़ाक अब अहल-ए-मसनद को नहीं होता नसीब
बोरिया-बाफ़ आज ज़ेब-ए-तख़्त-ए-सुल्ताँ हों तो क्या
मस्जिदें टूटी पड़ी हैं सौमेए वीरान हैं
याद-ए-हक़ में एक दो दिल-हा-ए-सोज़ाँ हों तो क्या
सूफ़ियान-ए-साफ़-तीनत वासिल-ए-हक़ हो गए
ख़ुद-नुमा दो चार नंग-ए-अहल-ए-इरफ़ाँ हों तो क्या
बुझ गईं शमएँ जलें परवाने तो क्या फ़ाएदा
उड़ गए परवाने शमएँ नूर-अफ़शाँ हूँ तो क्या
सख़्त-जान ओ बे-हया दो चार हम से जो रहे
हर घड़ी पाबंद-ए-ख़ौफ़-ए-इज़्ज़त-ओ-जाँ हों तो क्या
कर्बला में या नजफ़ में चल के मर जाएँ 'मुनीर'
हिन्द में हम पहलू-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ हों तो क्या
ग़ज़ल
दिल तो पज़मुर्दा है दाग़-ए-गुल्सिताँ हों तो क्या
मुनीर शिकोहाबादी