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दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-मह-वश है | शाही शायरी
dil talabgar-e-naz-e-mah-wash hai

ग़ज़ल

दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-मह-वश है

वली मोहम्मद वली

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दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-मह-वश है
लुत्फ़ उस का अगरचे दिलकश है

मुझ सूँ क्यूँ कर मिलेगा हैराँ हूँ
शोख़ है बेवफ़ा है सरकश है

क्या तिरी ज़ुल्फ़ क्या तिरे अबरू
हर तरफ़ सूँ मुझे कशाकश है

तुझ बिन ऐ दाग़-बख़्श-ए-सीना ओ दिल
चमन-ए-लाला दश्त-ए-आतश है

ऐ 'वली' तजरबे सूँ पाया हूँ
शोला-ए-आह-ए-शौक़ बे-ग़श है