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दिल से अब तो नक़्श-ए-याद-ए-रफ़्तगाँ भी मिट गया | शाही शायरी
dil se ab to naqsh-e-yaad-e-raftagan bhi miT gaya

ग़ज़ल

दिल से अब तो नक़्श-ए-याद-ए-रफ़्तगाँ भी मिट गया

सिराज मुनीर

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दिल से अब तो नक़्श-ए-याद-ए-रफ़्तगाँ भी मिट गया
इस ख़राबे से बिल-आख़िर ये निशाँ भी मिट गया

किस क़दर ख़ामोश था मैदाँ सर-ए-शाम-ए-शिकस्त
मर्हबा के साथ शोर-ए-अल-अमाँ भी मिट गया

पहले तो साया-फ़गन था ख़ाक हो जाने का ख़ौफ़
फिर दिलों से रंज-ए-उम्र-ए-राएगाँ भी मिट गया

टूटता जाता है अब ताराज ख़्वाबों का तिलिस्म
आँख से अक्स-ए-निगार-ए-मेहरबाँ भी मिट गया

ज़िंदगी और मौत में इक फ़र्क़ था हम से 'मुनीर'
मिट गए हम फ़र्क़ उन के दरमियाँ भी मिट गया