दिल से अब तो नक़्श-ए-याद-ए-रफ़्तगाँ भी मिट गया
इस ख़राबे से बिल-आख़िर ये निशाँ भी मिट गया
किस क़दर ख़ामोश था मैदाँ सर-ए-शाम-ए-शिकस्त
मर्हबा के साथ शोर-ए-अल-अमाँ भी मिट गया
पहले तो साया-फ़गन था ख़ाक हो जाने का ख़ौफ़
फिर दिलों से रंज-ए-उम्र-ए-राएगाँ भी मिट गया
टूटता जाता है अब ताराज ख़्वाबों का तिलिस्म
आँख से अक्स-ए-निगार-ए-मेहरबाँ भी मिट गया
ज़िंदगी और मौत में इक फ़र्क़ था हम से 'मुनीर'
मिट गए हम फ़र्क़ उन के दरमियाँ भी मिट गया
ग़ज़ल
दिल से अब तो नक़्श-ए-याद-ए-रफ़्तगाँ भी मिट गया
सिराज मुनीर