दिल प्यार के रिश्तों से मुकर भी नहीं जाता
शाकी है मगर छोड़ के दर भी नहीं जाता
हम किस से करें शो'लगी-ए-मेहर का शिकवा
ऐ अब्र-ए-गुरेज़ाँ तो ठहर भी नहीं जाता
इस शहर-ए-अना में जो फ़सादात न छिड़ते
तो प्यार का ये शौक़-ए-सफ़र भी नहीं जाता
वो फ़हम-ओ-फ़रासत का दिया हाथ में ले कर
इस दौर-ए-तशद्दुद से गुज़र भी नहीं जाता
इस एक की रस्सी को अगर थाम के रहते
फिर अपनी दुआओं का असर भी नहीं जाता
ये ज़ीस्त के लम्हे हैं 'वली' क़ीमती हीरे
क्यूँ कोई बड़ा काम तू कर भी नहीं जाता
ग़ज़ल
दिल प्यार के रिश्तों से मुकर भी नहीं जाता
वली मदनी