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दिल पा के उस की ज़ुल्फ़ में आराम रह गया | शाही शायरी
dil pa ke uski zulf mein aaram rah gaya

ग़ज़ल

दिल पा के उस की ज़ुल्फ़ में आराम रह गया

क़ाएम चाँदपुरी

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दिल पा के उस की ज़ुल्फ़ में आराम रह गया
दरवेश जिस जगह कि हुई शाम रह गया

झगड़े में हम माबादी के याँ तक फँसे कि आह
मक़्सूद था जो अपने तईं काम रह गया

ना-पोख़्तगी का अपनी सबब उस समर से पूछ
जल्दी से बाग़बाँ की वो जो ख़ाम रह गया

सय्याद तू तो जा, है पर उस की भी कुछ ख़बर
जो मुर्ग़-ए-ना-तवाँ कि तह-ए-दाम रह गया

क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद
कुछ दूर अपने हाथ से जब बाम रह गया

मारें हैं हम नगीन-ए-सुलैमाँ को पुश्त-ए-दस्त
जब मिट गया निशान तो गो नाम रह गया

ने तुझ पे वो बहार रही और न याँ वो दिल
कहने को नेक-ओ-बद के इक इल्ज़ाम रह गया

मौक़ूफ़ कुछ कमाल पे याँ काम-ए-दिल नहीं
मुझ को ही देख लेना कि नाकाम रह गया

'क़ाएम' गए सब उस की ज़बाँ से जो थे रफ़ीक़
इक बे-हया मैं खाने को दुश्नाम रह गया