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दिल ने किस मंज़िल-ए-बे-नाम में छोड़ा था मुझे | शाही शायरी
dil ne kis manzil-e-be-nam mein chhoDa tha mujhe

ग़ज़ल

दिल ने किस मंज़िल-ए-बे-नाम में छोड़ा था मुझे

शोहरत बुख़ारी

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दिल ने किस मंज़िल-ए-बे-नाम में छोड़ा था मुझे
रात भर ख़ुद मिरे साए ने भी ढूँडा था मुझे

मुझ को हसरत कि हक़ीक़त में न देखा उस को
उस को नाराज़गी क्यूँ ख़्वाब में देखा था मुझे

अजनबी बन के सर-ए-राह मिला था जो अभी
ये वही शख़्स है जिस ने कभी चाहा था मुझे

जब भी तन्हाई मिले आईना है या मैं हूँ
उस ने किस आन से किस आन में देखा था मुझे

जिन से भागा था वही सूरतें फिर सामने हैं
कौन सी क़ब्र में दुनिया ने उतारा था मुझे

वो फ़क़त मेरे लिए पैदा हुए हैं 'शोहरत'
कौन सा लम्हा था जब वहम ये गुज़रा था मुझे