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दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी | शाही शायरी
dil mutmain hai harf-e-wafa ke baghair bhi

ग़ज़ल

दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी

फ़ुज़ैल जाफ़री

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दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी
रौशन है राह नूर-ए-सदा के बग़ैर भी

इक ख़ौफ़ सा दरख़्तों पे तारी था रात-भर
पत्ते लरज़ रहे थे हवा के बग़ैर भी

घर घर वबा-ए-हिर्स-ओ-हवस है तो क्या हुआ
मरते हैं लोग रोज़ वबा के बग़ैर भी

मैं सारी उम्र लफ़्ज़ों से कम्बल न बुन सका
कटती है रात यानी रिदा के बग़ैर भी

एहसास-ए-जुर्म जान का दुश्मन है 'जाफ़री'
है जिस्म तार तार सज़ा के बग़ैर भी