दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी
रौशन है राह नूर-ए-सदा के बग़ैर भी
इक ख़ौफ़ सा दरख़्तों पे तारी था रात-भर
पत्ते लरज़ रहे थे हवा के बग़ैर भी
घर घर वबा-ए-हिर्स-ओ-हवस है तो क्या हुआ
मरते हैं लोग रोज़ वबा के बग़ैर भी
मैं सारी उम्र लफ़्ज़ों से कम्बल न बुन सका
कटती है रात यानी रिदा के बग़ैर भी
एहसास-ए-जुर्म जान का दुश्मन है 'जाफ़री'
है जिस्म तार तार सज़ा के बग़ैर भी
ग़ज़ल
दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी
फ़ुज़ैल जाफ़री