दिल में टीसें जाग उठती हैं पहलू बदलते वक़्त बहुत
अपना ज़माना याद आता है सूरज ढलते वक़्त बहुत
वो परचम वो सर के तुर्रे और वो सफ़ीने अपने थे
जिन को देख के शो'ले भी रोए थे जलते वक़्त बहुत
उन शीशों के रेज़ों का मरहम है अपने ज़ख़्मों पर
लम्हा लम्हा जो टूटे तलवारें चलते वक़्त बहुत
पल भर में पानी होते देखे हैं सनम किरदारों के
हम कैसे कह दें लगता है संग पिघलते वक़्त बहुत
सूने कितने बाम हुए कितने आँगन बे-नूर हुए
चाँद से चेहरे याद आते हैं चाँद निकलते वक़्त बहुत
अब हर घर की चौखट हम पर हँसती है तो राज़ खुला
फूट फूट कर रोई थीं क्यूँ दहलीज़ें चलते वक़्त बहुत
दो नस्लों की कश्ती थी वो पिछले दिनों जो डूब गई
भीगे जिस्मों वालो लगेगा तुम को सँभलते वक़्त बहुत
ग़ज़ल
दिल में टीसें जाग उठती हैं पहलू बदलते वक़्त बहुत
अख्तर लख़नवी