EN اردو
दिल में रख ज़ख़्म-ए-नवा राह में काम आएगा | शाही शायरी
dil mein rakh zaKHm-e-nawa rah mein kaam aaega

ग़ज़ल

दिल में रख ज़ख़्म-ए-नवा राह में काम आएगा

ज़फ़र गौरी

;

दिल में रख ज़ख़्म-ए-नवा राह में काम आएगा
दश्त-ए-बे-सम्त में इक हू का मक़ाम आएगा

इस तरह पढ़ता हूँ बहते हुए दरिया की किताब
सफ़हा-ए-आब पर इक अक्स-ए-पयाम आएगा

क़र्या-ए-जाँ में थे यादों के शनासा चेहरे
अजनबी शहर में किस किस का सलाम आएगा

मस्लहत-केश तो गुल-हा-ए-सताइश से लदे
सच के हाथों में वही ज़हर का जाम आएगा

रक़्स-ए-रफ़्तार से क्या रौंद चला फूलों को
आग पर चल कि तुझे लुत्फ़-ए-ख़िराम आएगा

ख़ंजर-ए-ज़हर-ए-वफ़ा दिल में छुपाए कब से
मुंतज़िर हूँ कि इधर वो सर-ए-शाम आएगा

दीदा-ए-दिल से 'ज़फ़र' ख़्वाब भी छिन जाएँगे
वक़्त कहता है कि अब ऐसा निज़ाम आएगा