दिल को ख़ुद दिलबर से ख़तरा
घर को अब है घर से ख़तरा
सर ज़बान के ख़तरे में था
अब ज़बान को सर से ख़तरा
राह में खो जाना है बेहतर
राही को रहबर से ख़तरा
रात को सोना देख-भाल के
चादर से बिस्तर से ख़तरा
यारो दुश्मन क़ातिल सारे
नीचे और ऊपर से ख़तरा
घर जाएँ या बाहर घूमें
अंदर से बाहर से ख़तरा
रात की रात सफ़र है अपना
हम को नूर-ए-सहर से ख़तरा
बशर बनाता मौत है अपनी
उस को अपने हुनर से ख़तरा

ग़ज़ल
दिल को ख़ुद दिलबर से ख़तरा
मधुवन ऋषि राज