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दिल को हम दरिया कहें मंज़र-निगारी और क्या | शाही शायरी
dil ko hum dariya kahen manzar-nigari aur kya

ग़ज़ल

दिल को हम दरिया कहें मंज़र-निगारी और क्या

अबुल हसनात हक़्क़ी

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दिल को हम दरिया कहें मंज़र-निगारी और क्या
पुर्सिश-ए-अहवाल-ए-आक़ा कम-अयारी और क्या

अपने मंज़र से अलग होता नहीं है कोई रंग
अपनी आँखों के सिवा बाद-ए-बहारी और क्या

हम भी कुछ कहते प उस की गुफ़्तुगू का सिलसिला
ख़त्म होता ही नहीं है होशियारी और क्या

सब उठा कर ले गईं मेरी जुनूँ-सामानियाँ
अब सताएगी हमें बे-अख़्तियारी और क्या

मेरी वहशत भी सुकूँ ना-आश्ना मेरी तरह
मेरे क़दमों से बंधी से ज़िम्मेदारी और क्या

उस ज़ियाँ-ख़ाने में मिलती ही नहीं दाद-ए-फ़िराक़
ज़ब्त का पैग़ाम देगी सोगवारी और क्या

जी में आ जाए तो हम भी मुस्कुरा कर देख लें
आँख फिर पहरों न खोलें शहरयारी और क्या

'हक़्क़ी' बेचारा आख़िर थक-थका कर सो गया
अपने ज़ख़्मों की वो करता पर्दा-दारी और क्या