दिल को हम दरिया कहें मंज़र-निगारी और क्या 
पुर्सिश-ए-अहवाल-ए-आक़ा कम-अयारी और क्या 
अपने मंज़र से अलग होता नहीं है कोई रंग 
अपनी आँखों के सिवा बाद-ए-बहारी और क्या 
हम भी कुछ कहते प उस की गुफ़्तुगू का सिलसिला 
ख़त्म होता ही नहीं है होशियारी और क्या 
सब उठा कर ले गईं मेरी जुनूँ-सामानियाँ 
अब सताएगी हमें बे-अख़्तियारी और क्या 
मेरी वहशत भी सुकूँ ना-आश्ना मेरी तरह 
मेरे क़दमों से बंधी से ज़िम्मेदारी और क्या 
उस ज़ियाँ-ख़ाने में मिलती ही नहीं दाद-ए-फ़िराक़ 
ज़ब्त का पैग़ाम देगी सोगवारी और क्या 
जी में आ जाए तो हम भी मुस्कुरा कर देख लें 
आँख फिर पहरों न खोलें शहरयारी और क्या 
'हक़्क़ी' बेचारा आख़िर थक-थका कर सो गया 
अपने ज़ख़्मों की वो करता पर्दा-दारी और क्या
        ग़ज़ल
दिल को हम दरिया कहें मंज़र-निगारी और क्या
अबुल हसनात हक़्क़ी

