दिल को आज़ार लगा वो कि छुपा भी न सकूँ
पर्दा वो आ के पड़ा है कि उठा भी न सकूँ
मुद्दआ सामने उन के नहीं आता लब तक
बात भी क्या ग़म-ए-दिल है कि सुना भी न सकूँ
बे-जगह आँख लड़ी देखिए क्या होता है
आप जा भी न सकूँ उन को बुला भी न सकूँ
वो दम-ए-नज़अ मिरे बहर-अयादत आए
हाल कब पूछते हैं जब कि सुना भी न सकूँ
ज़िंदगी भी शब-ए-हिज्राँ है कि कटती ही नहीं
मौत है क्या तिरा आना कि बुला भी न सकूँ
दम है आँखों में इसे जान में लाऊँ क्यूँकर
कब वो आए कि उन्हें हाथ लगा भी न सकूँ
शर्म-ए-इस्याँ ने झुकाया मिरी गर्दन को 'ज़हीर'
बोझ वो आ के पड़ा है कि उठा भी न सकूँ
ग़ज़ल
दिल को आज़ार लगा वो कि छुपा भी न सकूँ
ज़हीर देहलवी