दिल की शाख़ों पे उमीदें कुछ हरी बाँधे हुए 
देखता हूँ तुझ को अब भी टिकटिकी बाँधे हुए 
तेरी फ़ुर्क़त में पड़े हैं वक़्त से मुँह फेरे हम 
मुद्दतें गुज़री कलाई पर घड़ी बाँधे हुए 
आज तक पूरा न उतरा तू मिरे अशआ'र में 
मुझ को मेरे फ़न से है मेरी कमी बाँधे हुए
        ग़ज़ल
दिल की शाख़ों पे उमीदें कुछ हरी बाँधे हुए
इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’

