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दिल की शाख़ों पे उमीदें कुछ हरी बाँधे हुए | शाही शायरी
dil ki shaKHon pe umiden kuchh hari bandhe hue

ग़ज़ल

दिल की शाख़ों पे उमीदें कुछ हरी बाँधे हुए

इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’

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दिल की शाख़ों पे उमीदें कुछ हरी बाँधे हुए
देखता हूँ तुझ को अब भी टिकटिकी बाँधे हुए

तेरी फ़ुर्क़त में पड़े हैं वक़्त से मुँह फेरे हम
मुद्दतें गुज़री कलाई पर घड़ी बाँधे हुए

आज तक पूरा न उतरा तू मिरे अशआ'र में
मुझ को मेरे फ़न से है मेरी कमी बाँधे हुए