दिल की सब उलझनों का हल लिक्खूँ
इक महकती हुई ग़ज़ल लिक्खूँ
उस की आसानियों पे जाँ दे दूँ
अपनी मुश्किल को भी सरल लिक्खूँ
जबकि तदबीर में कमी न करूँ
फिर भी तक़दीर को अटल लिक्खूँ
बात मैं एक बे-मिसाल कहूँ
शे'र मैं कोई बे-बदल लिक्खूँ
मेरी कुटिया की बात क्या है 'सहर'
तेरे छप्पर को भी महल लिक्खूँ

ग़ज़ल
दिल की सब उलझनों का हल लिक्खूँ
रमज़ान अली सहर