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दिल की मिरे बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ | शाही शायरी
dil ki mere bisat kya ek diya bujha hua

ग़ज़ल

दिल की मिरे बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ

हनीफ़ अख़गर

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दिल की मिरे बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ
तुम ने इसे बजा कहा एक दिया बुझा हुआ

सर पे मुसल्लत की गईं सारे जहाँ की ज़ुल्मतें
और मुझे दे दिया गया एक दिया बुझा हुआ

हम ने तो गुल किए थे ख़ुद अपनी उम्मीद के चराग़
आप ने क्यूँ जला दिया एक दिया बुझा हुआ

दिल से न मेरे पूछिए आलम-ए-तर्क-ए-आरज़ू
ताक़ में जिस के रह गया एक दिया बुझा हुआ

आईना-ए-वजूद में ख़ुद को जो देखने गया
मेरा ही अक्स बन गया एक दिया बुझा हुआ

जब यके-बा'द-दीगरे सारे चराग़ बुझ गए
आप ही आप जल उठा एक दिया बुझा हुआ

आप की क्या मिसाल दूँ आप तो बे-मिसाल हैं
और मिरी मिसाल क्या एक दिया बुझा हुआ

मैं ने तो उस को बख़्श दी क़ल्ब-ओ-नज़र की रौशनी
उस ने ख़याल को दिया एक दिया बुझा हुआ

इश्क़ में ख़ाक हो के भी 'अख़्गर' इक आग सी रही
मुझ में ब-हर-नफ़स जला एक दिया बुझा हुआ